अखबारों के पन्नो पर,
वही खबर अब फिरसे है,
मासूमो की रूहो के,
कत्लों के ही किस्से है..
नाम बदल जाते है पर,
अंजाम वही यूँ होता है,
बेटी वाला हर एक घर,
खून के आंसू रोता है...
कपड़ो की लंबाई से,
उनका भी क्या रिश्ता है??
अभी तक जो प्यारी आँखें
आँचल का ही हिस्सा है।।
वो हिन्दू है,मुस्लिम भी है,
ऐ चुप रहने वाला तू भी उनका,
मुज़रिम ही है,
मुज़रिम ही है।।
न हाथ कभी कटते है वो,
न आँख वो नोचि जाती है,
अंधे , बहरे कानून में बस,
तारीख ही बदली जाती है।।
काश किताबो में कोई,
बुरी नज़र का पन्ना होता,
अ पढ़ने से पहले,
उन आंखों को पढ़ना होता,
शायद ऐसा करने से कोई,
दुर्गा, काली फिर बच जाती,
इस कीचड़ वाले समाज मे,
कमल शायद वो बन जाती।।
अपने टीम चश्मो को थोड़ा,
साफ जरा फिर कर लेना,
कल फिर आएगा नाम नया,
अखबारों को पढ़ लेना।।
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